इतिहासकार वी ए. स्मिथ1, विलियम क्रुक2 एवं रुडोल्फ होर्नले3 गुर्जर प्रतिहारो को हूणों से सम्बंधित मानते हैं| स्मिथ कहते हैं की इस सम्बन्ध में सिक्को पर आधारित प्रमाण बहुत अधिक प्रबल हैं|4 वे कहते हैं कि हूणों तथा भीनमाल के गुर्जरों, दोनों ने ही सासानी पद्धति के के सिक्के चलाये|5होर्नले गुर्जर-प्रतिहारो को ‘तोमर’ मानते हैं तथा पेहोवा अभिलेख के आधार पर उन्हें जावुला ‘तोरमाण हूण’ का वंशज बताते हैं|6 पांचवी शताब्दी के लगभग उत्तर भारत को विजय करने वाले हूण ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म और संस्कृति से प्रभावित थे|5 वो सूर्य और अग्नि के उपासक थे जिन्हें वो क्रमश मिहिर और अतर कहते थे| वो वराह की सौर (मिहिर) देवता के रूप में उपासना करते थे|7 हरमन गोएत्ज़ इस देवता को मात्र वराह न कहकर ‘वराहमिहिर’ कहते हैं| मेरा मुख्य तर्क यह हैं कि हूण और प्रतिहारो के इतिहास में बहुत सी समान्तर धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराए हैं, जोकि उनकी मूलभूत एकता का प्रमाण हैं| कई मायनो में प्रतिहारो का इतिहास उनकी हूण विरासत को सजोये हुए हैं| प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हूणों से हुई थी तथा उन्होंने हूणों की विरासत को आगे बढाया इस बात के बहुत से प्रमाण हैं|
सबसे पहले हम हूणों के सौर देवता वराह की प्रतिहारो द्वारा उपासना के विषय में चर्चा करेंगे| भारत में वराह पूजा की शुरुआत मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग 500 ई. में उस समय हुई,8 जब हूणों ने यहाँ प्रवेश किया| यही पर हमें हूणों के प्रारभिक सिक्के और अभिलेख मिलते हैं| भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले उनके नेता तोरमाण के शासनकाल में इसी इलाके के एरण, जिला सागर, मध्य प्रदेश में वराह की विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी9 जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वराह मूर्ति हैं| तोरमाण के शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिला हैं|10 जोकि इस बात का प्रमाण हैं कि हूण और उनका नेता तोरमाण भारत प्रवेश के समय से ही वाराह के उपासक थे|
पांचवी शातब्दी के अंत में भारत में प्रवेश करने वाले श्वेत हूण ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म से प्रभावित थे| भारत में प्रवेश के समय हूण वराह की सौर देवता के रूप में उपासना करते थे| इतिहासकार हरमन गोएत्ज़ इस देवता को वराहमिहिर कहते हैं| गोएत्ज़ कहते हैं, क्योकि हूण मिहिर ‘सूर्य’ उपासक थे, इसलिए वाराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम का प्रतिनिधित्व करता था|11 ईरानी ग्रन्थ ‘जेंदा अवेस्ता’ के ‘मिहिर यास्त’ में कहा गया हैं कि मिहिर ‘सूर्य’ जब चलता हैं तो वेरेत्रघ्न वराह रूप में उसके साथ चलता हैं|12 ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म में वेरेत्रघ्न ‘युद्ध में विजय’ का देवता हैं| अतः हूणों की वराह पूजा के स्त्रोत ईरानी ग्रन्थ ‘जेंदा अवेस्ता’ के ‘मिहिर यस्त’ तक जाते है|
भारत में हूणों ने शैव धर्म अपना लिया और वे ब्राह्मण धर्म के सबसे कट्टर समर्थक के रूप में उभरे|13 यहाँ तक की बौद्ध चीनी यात्री हेन सांग (629-647 ई.) ने हूण सम्राट मिहिरकुल पर बौधो का क्रूरता पूर्वक दमन करना का आरोप लगाया हैं|14 कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल हूण ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण कराया तथा गंधार क्षेत्र में ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए|15 जे. एम. कैम्पबेल के अनुसार मिहिरकुल से जुड़ी कहानिया उसे एक भगवान जैसे शक्ति और सफलता वाला, निर्मम, धार्मिक यौद्धा दर्शाती हैं| राजतरंगिणी की प्रशंशा तथा हेन सांग की रंज भरी स्वीकारोक्तिया में यह निहित हैं कि उसे भगवान माना जाता था|16 जैन ग्रंथो में महावीर की मृत्यु के 1000 वर्ष बाद उत्तर भारत में शासन करने वाले ‘कल्किराज़’ के साथ मिहिरकुल के इतिहास में समानता के आधार पर के. बी. पाठक मिहिरकुल को ब्राह्मण धर्म के रक्षक ‘कल्कि अवतार’ के रूप में भी देखते हैं|17 ऐसा प्रतीत होता हैं कि उत्तर भारत की विजय से पूर्व गंधार क्षेत्र में ही हूण ब्राह्मण धर्म के प्रभाव में आ चुके थे क्योकि तोरमाणके सिक्के पर भी भारतीय देवता दिखाई पड़ते हैं| कालांतर में हूणों के ईरानी प्रभाव वाले कबीलाई देवता वराहमिहिर को भगवान विष्णु के वराह अवतार के रूप में अवशोषित कर लिया गया|18 अतः तोरमाण द्वारा एरण में स्थापित वाराह की विशालकाय मूर्ति से प्राप्त उसके शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख वराह अवतार की स्तुति से प्रारम्भ होता हैं|
हूणों के नेता तोरमाण की भाति महानतम गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज वराह का उपासक था| भोज के अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर वराह उत्कीर्ण है|19 भोज ने आदि वराह की उपाधि धारण की थी20, संभवतः वह वराह अवतार माना जाता था | गुर्जर प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज में भी वराह की पूजा होती थी और वहा वराह मंदिर भी था| अधिकतर वराह मूर्तिया, विशेषकर वो जोकि विशुद्ध वाराह जानवर जैसी हैं, गुर्जर-प्रतिहारो के काल की हैं| 21तोरमाण हूण द्वारा एरण में स्थापित वाराह मूर्ति भी विशुद्ध जानवर जैसी हैं|
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